दिल्ली चुनाव: 'हर बार वोट देते हैं लेकिन सरकार को हम दिखाई ही नहीं देते'

वो हमें नहीं देख सकते, इसमें उनकी कोई ग़लती नहीं है लेकिन हम उन्हें नज़रअंदाज़ करते हैं, ये निश्चित तौर पर हमारी ग़लती है.


वर्षा सिंह, राजीव साहिर, आयुषी शर्मा और प्रशांत रंजन वर्मा से मिलने के बाद ये अच्छी तरह अहसास होता है कि कैसे सरकार और समाज न देख सकने वालों को देखकर भी अनदेखा करते हैं.


अगर कोई दृष्टिबाधित व्यक्ति वोट देने जाता है तो चुनाव की अगली सुबह ही उसकी तस्वीर अख़बारों के पहले पन्ने पर छपती है और सोशल मीडिया पर वायरल हो जाती है.


इन तस्वीरों को भारतीय लोकतंत्र की असली तस्वीर बताया जाता है मगर अंधेरे में डूबी इन ज़िंदगियों को रोशन करने के लिए कितनी नीतियां बनाई जाती हैं? उनकी मुश्किलों को कम करने के लिए कितने नए रास्ते गढ़े जाते हैं?


विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक़ पूरी दुनिया में लगभग तीन करोड़ 90 लाख दृष्टिबाधित हैं और उनमें भी सबसे ज़्यादा लोग भारत में हैं. भारत में दृष्टिबाधित लोगों की संख्या डेढ़ करोड़ के करीब है.


डेढ़ करोड़ के लगभग की इस आबादी में दृष्टिबाधित मतदाताओं की बड़ी संख्या चुनाव के दौरान लोकतंत्र के जश्न में दूसरों की तरह भागीदार बन पाने से वंचित रह जाती है.


चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार अकेले दिल्ली में कुल 50,473 विकलांग मतदाता हैं.


दूसरे जान जाते हैं कि किसे वोट दिया'


32 साल की वर्षा सिंह नेशनल असोसिएशन फ़ॉर द ब्लाइंड (NAB) में कंप्यूटर इंस्ट्रक्टर हैं. वो दिल्ली में अब तक चार-पांच बार वोट दे चुकी हैं और उन्हें हर बार मुश्किलों का सामना करना पड़ा है.


वर्षा आठ फ़रवरी को दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी वोट देने जाएंगी लेकिन वो अच्छी तरह जानती हैं घर से पोलिंग बूथ तक का उनका सफ़र आसान नहीं होगा.


वो याद करती हैं, "पिछले साल लोकसभा चुनाव में जब मैं वोट डालने पहुंची तो मुझे पता चला कि मेरा पोलिंग बूथ दूसरे स्कूल में है और वहां कोई ऐसा वॉलंटियर भी नहीं था जो मेरी मदद करता. सही बूथ तक पहुंचने में मुझे बहुत दिक्कत हुई."


हर वोट गोपनीय होता है और किसी व्यक्ति ने किस पार्टी या किस उम्मीदवार को वोट दिया, इसकी जानकारी बाहर नहीं जानी चाहिए. लेकिन दृष्टिबाधित लोगों के मामले में कई बार वोटों की गोपनीयता भंग हो जाती है.


वर्षा बताती हैं, "अक्सर हमें दूसरा शख़्स ईवीएम तक लेकर जाता है और वोट देने का तरीक़ा समझाता है. कई बार ऐसा होता है कि वो शख़्स देख लेता है कि हम किसे वोट दे रहे हैं. मेरे और मेरे कुछ दोस्तों के साथ भी ऐसा हो चुका है."


चुनाव आयोग के मैन्युअल के अनुसार पोलिंग बूथ पर उम्मीदवारों और पार्टियों की जानकारी ब्रेल में भी उपलब्ध होती है लेकिन कई बार लापरवाही की वजह से ये दृष्टिबाधित लोगों तक पहुंचती ही नहीं है.


वर्षा कहती हैं, "अगर कई दृष्टिबाधित लोग एक समूह में वोट डालने पहुंचते हैं तब तो उन्हें ब्रेल वाली बुकलेट आसानी से मिल जाती है लेकिन अगर कोई अकेले है तो उसे ख़ुद इस बारे में पूछना पड़ता है."


आज तक नहीं मिले ब्रेल वाले वोटर कार्ड'


24 वर्षीय राजीव साहिर को भी चुनावों के दौरान कुछ ऐसी ही समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है. राजीव एक परफ़ॉर्मिंग आर्टिस्ट हैं और सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों को लेकर काफ़ी जागरुक भी.


वो कहते हैं, "हम कब से सुनते आ रहे हैं कि ब्रेल वाले वोटर आईडी कार्ड मिलेंगे. अब तक नहीं मिले. पोलिंग बूथ पर रैंप और एक्सेसिबल शौचालय भी मुझे कभी नहीं मिले. बूथ तक पहुंचने में जो मुश्किलें होती हैं वो अलग हैं."


भारतीय संविधान समानता के अधिकार के तहत विकलांग लोगों को समान सुविधाएं, सेवाएं और मौके दिए जाने की बात कहता है लेकिन क्या वाक़ई ऐसा हो पाता है?


दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस कॉलेज में पढ़ने वाली आयुषी शर्मा इस सवाल का जवाब 'नहीं' में देती हैं.


आयुषी ग्रेजुएशन फ़ाइनल ईयर (इतिहास) की छात्रा हैं. वो कहती हैं कि चुनावों को एक्सेसिबल बनाने की कोशिशें काबिल-ए-तारीफ़ है मगर एक्सेसिबिलिटी सिर्फ़ एक दिन का मुद्दा नहीं है.